SHRI SARANAGATI DEEPIKA

श्रीशरणागतिदीपिका
             (श्री निगमान्तदेशिकविरचितम्)
        श्रीमान् वेङ्कटनाथार्यः कवितार्किककेसरी।
        वेदान्ताचार्यवर्यो मे सन्निधत्तां सदा हृदि॥
        पद्मापतेः स्तुतिपदेन विपच्यमानं
        पश्यन्त्विह प्रपदनप्रवणाः महान्तः।
        मद्वाक्य संवलितमप्यजहत्स्वभावम्
        मान्यं यतीश्वर महानस संप्रदायम्॥१॥
        नित्यं श्रिया वसुधया च निषेव्यमाणं
        निर्व्याज निर्भर दया भरितं विभाति।
        वेदान्तवेद्यमिह वेगवती समीपे
        दीपप्रकाश इति दैवतमद्वितीयम् ॥२॥ 
        दीपस्त्वमेव जगतां दयिता रुचिस्ते
        दीर्घं तमः प्रतिनिवर्त्यमिदं युवाभ्याम्।
        स्तव्यं स्तवप्रियमतः शरणोक्तिवश्यं
        स्तोतुं भवन्तमभिलष्यति जन्तुरेषः ॥३॥
        पद्माकरादुपगता परिषस्वजे त्वां
        वेगा सरिद्विहरणा कलशाब्धिकन्या ।
        आहुस्तदाप्रभृति दीप समावभासम्
        आजानतो मरकतप्रतिमं वपुस्ते॥४॥
        स्वामिन् गभीरसुभगं श्रमहारि पुंसां
        माधुर्यरम्यमनघं मणिभङ्गदृश्यम् ।
        वेगान्तरे वितनुते प्रतिबिम्बशोभाम्
        लक्ष्मी सरः सरसिजाश्रयमङ्गकं ते॥५॥
        आविश्य धारयसि विश्वममुष्य यन्ता
        शेषी श्रियःपतिरशेषतनुर्निदानम् ।
        इत्यादि लक्षणगणैः पुरुषोत्तमं त्वां
        जानाति यो जगति सर्वविदेष गीतः ॥६॥
        विश्वं शुभाश्रयवदीश वपुस्त्वदीयं
        सर्वा गिरस्त्वयि पतन्ति ततोऽसि सर्वः।
        सर्वं च वेदविधयस्त्वदनुग्रहार्थाः
        सर्वाधिकस्त्वमिति तत्त्वविदस्तदाहुः ॥७॥
        ज्ञानं बलं नियमनक्षमताऽथ वीर्यं
        शक्तिश्च तेज इति ते गुणषट्कमाद्यम् ।
        सर्वातिशायिनि हिमोपवनेश यस्मिन्
        अन्तर्गतो जगदिव त्वयि सद्गुणौघः ॥८॥
        दीपावभास दयया विधिपूर्वमेतत्
        विश्वं विधाय निगमानपि दत्तवन्तम्।
        शिष्यायिताः शरणयन्ति मुमुक्षवस्त्वाम्
        आद्यं गुरुं गुरुपरंपरयाऽधिगम्यम् ॥९॥
        सत्ता स्थिति प्रयतनप्रमुखैरुपात्तम्
        स्वार्थं सदैव भवता स्वयमेव विश्वम् ।
        दीप प्रकाश तदिह त्वदवाप्तये त्वां
        अव्याजसिद्धमनपायमुपायमाहुः ॥१०॥
        भोग्यं मुकुन्द गुणभेदमचेतनेषु
        भोक्तृत्वमात्मनि निवेश्य निजेच्छयैव।
        पाञ्चालिका शुक विभूषण भोगदायी
        सम्राडिवात्मसमया सह मोदसे त्वम्॥११॥
        त्वां मातरं पितरं सहजं निवासं
        सन्तः समेत्य शरणं सुहृदं गतिं च।
        निःसीमनित्यनिरवद्यसुखप्रकाशं
        दीपप्रकाश सविभूतिगुणं विशन्ति॥१२॥
        जन्तोरमुष्य जनने विधि शम्भु दृष्टौ
        रागादिनेव रजसा तमसा च योगः।
        द्वैपायनप्रभृतयस्त्वदवेक्षितानां
        सत्त्वं विमुक्ति नियतं भवतीत्युशन्ति॥१३॥
        कर्मस्वनादि विषमेषु समो दयालुः
        स्वेनैव कॢप्त मपदेश मवेक्षमाणः।
        स्वप्राप्तये तनुभृतां त्वरसे मुकुन्द
        स्वाभाविकं तव सुहृत्त्वमिदं गृणन्ति॥१४॥
        निद्रायितान् निगम वर्त्मनि चारु दर्शी
        प्रस्थान शक्ति रहितान् प्रतिबोध्य जन्तून्।
        जीर्ण स्तनन्धय जडान्धमुखानिवास्मान्
        नेतुं मुकुन्द यतसे दयया सह त्वम् ॥१५॥
       
     
       भक्तिः प्रपत्तिरथवा भगवन् तदुक्तिः
       तन्निष्ठ संश्रय इतीव विकल्प्यमानम्। 
       यं कंचिदेवमुपपादयता त्वयैव
       त्रातास्तरन्त्यवसरे भविनो भवाब्धिम् ॥१६॥
       नानाविधैरकपटैरजहत्स्वभावैः
       अप्राकृतैर्निजविहार वशेन सिद्धैः।
       आत्मीय रक्षण विपक्ष विनाशनार्थैः
       संस्थापयस्यनघ जन्मभिराद्यधर्मम्॥१७॥
       निम्नोन्नतानि निखिलानि पदानि गाढं
       मज्जन्ति ते महिमसागरशीकरेषु।
       नीरन्ध्रमाश्रयसि नीचजनान् तथाऽपि
       शीलेन हन्त शिशिरोपवनेश्वर त्वम् ॥१८॥
       काशीवृकान्धक शरासन बाण गङ्गा-
       संभूति नामकृतिसंवदनाद्युदन्तैः।
       स्वोक्त्यम्बरीष भय शाप मुखैश्च शम्भुं
       तन्निघ्नमीक्षितवतामिह कः शरण्यः ॥१९॥
       क्वासौ विभुः क्व वयमित्युपसत्ति भीतान् 
       जन्तून् क्षणात् त्वदनुवृत्तिषु योग्ययन्ती।
       संप्राप्त 
सद्गुरु तनोः समये दयालोः
       आत्मावधिर्भवति संस्कृतधीः क्षणं ते॥२०॥ 
      
       योग्यं यमैश्च नियमैश्च विधाय चित्तं 
       सन्तो जितासनतया स्ववशासु वर्गाः।
       प्रत्याहृतेन्द्रियगणाः स्थिरधारणास्त्वां
       ध्यात्वा समाधियुगलेन विलोकयन्ति॥२१॥
       पद्माभिराम वदनेक्षणपाणिपादं
       दिव्याद्युधाभरण माल्य विलेपनं त्वाम्।
       योगेन
नाथ शुभमाश्रयमात्मवन्तः
       सालम्बनेन परिचिन्त्य न यान्ति तृप्तिम्॥२२॥
       
       मानातिलङ्घि सुखबोधमहाम्बुराशौ
       मग्नास्त्रिसीम रहिते भवतः स्वरूपे।
       तापत्रयेण विहतिं न भजन्ति सन्तः
       संसारघर्मजनितेन समाधिमन्तः ॥२३॥
       धी संस्कृतान् विदधतामिह कर्मभेदान्
       शुद्धं जिते मनसि चिन्तयतां स्वमेकम्।
       त्वत्कर्म सक्त मनसामपि चापरेषां
       सूते फलान्यभिमतानि भवान् प्रसन्नः ॥२४॥
       उद्बाहुभावमपहाय यथैव खर्वः
       प्रांशुं फलार्थमभियाचति योगिचिन्त्य।
       एवं  सुदुष्करमुपायगणं विहाय
       स्थाने निवेशयति तस्य विचक्षणस्त्वाम्॥२५॥
       नित्यालसार्हमभयं निरपेक्षमन्यैः
       विश्वाधिकारमखिलाभिमतप्रसूतिम्।
       शिक्षाविशेषसुभगं व्यवसाय सिद्धाः
       सत्कुर्वते त्वयि मुकुन्द षडङ्गयोगम् ॥२६॥
       त्वत्प्रातिकूल्यविमुखाः स्फुरदानुकूल्याः
       कृत्वा पुनः कृपणतां विगतातिशङ्काः ।
       स्वामिन् भव स्वयमुपाय इतीरयन्तः
       त्वय्यर्पयन्ति निज भारमपारशक्तौ ॥२७॥
       अर्थान्तरेषु विमुखान् अधिकार हानेः
       श्रद्धाधनान् त्वदनुभूति विलम्ब भीतान्।
       दीप प्रकाश लभसे सुचिरात् कृतीव
       न्यस्तात्मनस्तव पदे निभृतान् प्रपन्नान् ॥२८॥
       मन्त्रैरनुश्रवमुखेष्वधिगम्यमानैः  
       स्वाधि क्रिया समुचितैर्यदिवाऽन्यवाक्यैः।
       नाथ त्वदीय चरणौ शरणं गतानां
       नैवायुतायुत कलाप्यऽपरैरवाप्या ॥२९।
       दत्ताः प्रजा जनकवत् तव देशिकेन्द्रैः
       पत्याऽभिनन्द्य भवता परिणीयमानाः।
       मध्ये सतां महितभोग विशेष सिद्ध्यै
       माङ्गल्यसूत्रमिव बिभ्रति किङ्करत्वम् ॥३०॥
       दिव्ये पदे नियत किङ्करताधिराज्यं
       दातुं त्वदीय दयया विहिताभिषेकाः।
       आदेहपातमनघाः परिचर्यया ते
       युञ्जानचिन्य युवराज पदं भजन्ति ॥३१॥
       त्वां पाञ्चरात्रिक नयेन पृथग्विधेन
       वैखानसेन च पथा नियताधिकराः।
       संज्ञा विशेष नियमेन समर्चयन्तः
       प्रीत्या नयन्ति फलवन्ति दिनानि धन्याः ॥३२॥
       वर्णाश्रमादि नियत क्रम सूत्र बद्धाः
       भक्त्या यथार्ह विनिवेशित पत्र पुष्पा।
       मालेव काल विहिता हृदयङ्गमा त्वां
       आमोदयत्यनुपराग धियां सपर्या ॥३३॥
       ब्रह्मा गिरीश इतरेऽप्यमरा य एते
       निर्धूय तान् निरय तुल्य फलप्रसूतीन्।
       प्राप्तुं तवैव पदपद्म युगं प्रतीताः
       पातिव्रतीं त्वयि वहन्ति परावरज्ञाः ॥३४॥
       नाथ त्वदिष्ट विनियोग निशेष सिद्धं
       शेषत्व सारमनपेक्ष्य निजं गुणज्ञाः ।
       भक्तेषु ते वरगुणार्णव पारतन्त्र्यात्
       दास्यं भजन्ति विपणि व्यवहार योग्यम् ॥३५॥
       सद्भिस्वदेक शरणैर्नियतं सनाथाः
       सर्पादिवत् त्वदपराधिषु दूर याताः।
       धीरास्तृणीकृत विरिञ्चपुरन्दराद्याः
       कालं क्षिपन्ति भगवन् करणैरवन्ध्यैः॥३६॥
       वागादिकं मनसि तत् पवने स जीवे
       भूतेष्वयं पुनरसौ त्वयि तैः समेति।
       साधारणोत्क्रमण कर्म समाश्रितानां
       यन्त्रा मुकुन्द भवतैव यथा यमादेः ॥३७॥
       सव्यान्ययोरयनयोर्निशि वासरे वा
       सङ्कल्पितायुरवधीन् सपदि प्रपन्नान्।
       हार्दः स्वयं निजपदे विनिवेशयिष्यन्
       नाडीं प्रवेशयसि नाथ शताधिकां त्वम् ॥३८॥
       अर्चिर्दिनं विशदपक्ष उदक्प्रयाणं
       संवत्सरो मरुदशीतकरः शशाङ्कः।
       सौदामनी जलपतिर्वलजित्प्रजेशः
       इत्यातिवाहिक सखो नयसि स्वकीयान् ॥३९॥
       त्वच्छेष वृत्त्यनुगुणैर्महितैर्गुणौघैः
       आविर्भवत्ययुतसिद्ध निजस्वरूपे।
       त्वल्लक्षणेषु नियतेष्वपि भोग मात्रे
       साम्यं भजन्ति परमं भवता विमुक्ताः ॥४०॥
       इत्थं त्वदेकशरणैरनघैरवाप्ये
       त्वत्किङ्करत्वविभवे स्पृहयाऽपराध्यन्।
       आत्मा ममेति भगवन् भवतैव गीताः
       वाचो निरीक्ष्य भरणीय इह त्वयाऽहम् ॥४१॥
       पद्मा मही प्रभृतिभिः परिभुक्त भूम्नः
       का हानिरत्र मयि भोक्तरि ते भवित्री।
       दुष्येत् किमङ्घ्रि तटिनी तव देव सेव्या
       दुर्वार तर्ष चपलेन शुनाऽवलीढा ॥४२॥
       सत्वानि नाथ विविधान्यभिसञ्जिघृक्षोः
       संसारनाट्यरसिकस्य तवाऽस्तु तृप्त्यै
       प्रत्यक्पराङ्मुख मतेरसमीक्ष्य कर्तुः
       प्राचीन सज्जन विडम्बन भूमिका मे ॥४३॥
       कर्तव्यमित्यनुकलं कलयाम्यकृत्यं
       स्वामिन्नकृत्यमिति कृत्यमपि त्यजामि।
       अन्यद् व्यतिक्रमण जातमनन्तमर्थ-
       स्थाने दया भवतु ते मयि सार्वभौमी॥४४॥
       यं पूर्वमाश्रितजनेषु भवान् यथावत्
       धर्मं परं प्रणिजगौ स्वयमानृशंस्यम्।
       संस्मारितस्त्वमसि तस्य शरण्य भावात्
       नाथ त्वदात्त समया ननु मादृशार्थम् ॥४५॥
       त्राणं भवेति सकृदुक्ति समुद्यतानां
       तैस्तैरसह्यवृजिनैरुदरंभरिस्ते
       सत्यापिता शतमखात्मज शङ्करादौ
       नाथ क्षमा न खलु जन्तुषु मद्विवर्जम्॥४६॥
       कर्मादिषु त्रिषु कथां कथमप्यजानन्
       कामादि मेदुरतया कलुषप्रवृत्तिः ।
       साकेतसंभव चराचरजन्तु नीत्या
       वीक्ष्यः प्रभो विषय वासितयाऽप्यहं ते ॥४७॥
       ब्रह्माण्ड लक्ष शत कोटि गणाननन्तान्
       एकक्षणे विपरिवर्त्य विलज्जमानाम्।
       मत्पापराशि मथने मधुदर्पहन्त्रीं
       शक्तिं प्रयुङ्क्ष्व शरणागतवत्सल त्वम् ॥४८॥
       आस्तां प्रपत्तिरिह देशिकसाक्षिका मे
       सिद्धा तदुक्तिरनघा त्वदवेक्षितार्था
       न्यस्तस्य पूर्वनिपुणैस्त्वयि नन्विदानीं
       पूर्णे मुकुन्द पुनरुक्त उपाय एषः॥४९॥
       यद्वा मदर्थ परिचिन्तनया तवालं
       संज्ञा प्रपन्न इति साहसिको बिभर्मि।
       एवं स्थिते त्वदपवादनिवृत्तये मां
       पात्रीकुरुष्व भगवन् भवतः कृपायाः ॥५०॥
       त्यागे गुणेश शरणागत संज्ञिनो मे-
       स्त्यानागसोऽपि सहसैव परिग्रहे वा।
       किं नाम कुत्र भवतीति कृपादिभिस्ते
       गूढं निरूपय गुणेतर तारतम्यम् ॥५१॥
       स्वामी दयाजलनिधिर्मधुरः क्षमावान्
       शीलाधिकः श्रितवशः शुचिरत्युदारः  ।
       एतानि हातुमनघो न किलार्हसि त्वं
       विख्यातिमन्ति विरुदानि मया सहैव ॥५२॥
      
       वेला धनञ्जयरथादिषु वाचिकैः स्वैः
       आघोषितामखिलजन्तु शरण्यतां ते
       जानन् दशाननशताधिकागसोऽपि
       पश्यामि दत्तमभयं स्वकृते त्वया मे ॥५३॥
  
       रक्ष्यस्त्वया तवभरोऽस्म्यहमित्यपूर्वान्
       वर्णानिमानहृदयानपि वाचयित्वा।
       मद्दोष निर्जित गुणो महिषी समक्षं
       मा भूस्त्वदन्य इव मोघपरिश्रमस्त्वम् ॥५४॥
       मुख्यं च यत्प्रपदनं स्वयमेव साध्यं
       दातव्यमीश कृपया तदपि त्वयैव
       तन्मे भवच्चरणसङ्गवतीमवस्थां
       पश्यन्नुपायफलयोरुचितं विधेयाः ॥५५॥ 
       अल्पास्थिरैरसुखजैरसुखावसानैः
       दुःखान्वितैरनुचितैरभिमानमूलैः।
       प्रत्यक्परागनुभवैः परिघूर्णितं
मां
       त्वय्येव नाथ चरितार्थय निर्विविक्षुम् ॥५६॥
       तत्त्वावबोध शमित प्रतिकूल वृत्तिं
       कैङ्कर्य लब्ध करणत्रय सामरस्यम्।
       कृत्वा त्वदन्य विमुखं कृपया स्वयं मां
       स्फीतिं दृशोः प्रतिलभस्व जगज्जनन्याः॥५७॥
       इत्थं स्तुति प्रभृतयो यदि संमता स्युः
       यद्वाऽपराधपदवीष्वभिसंविशन्ति।
       स्तोकानुकूल्यकणिका वशवर्तिनस्ते
       प्रीति क्षमा प्रसरयोरहमस्मि लक्ष्यम् ॥५८॥
       स्नेहोपपन्न विषयः स्वदशा विशेषात्
       भूयस्तमिस्र शमनीं भुवि वेङ्कटेशः।
       दिव्यां स्तुतिं निरमिमीत सतां नियोगात्
       दीपप्रकाश शरणागति दीपिकाख्याम् ॥५९॥
        ॥इति श्रीशरणागतिदीपिका समाप्ता॥

       कवितार्किकसिंहाय कल्याणगुणशालिने।
       श्रीमते वेङ्कटेशाय वेदान्तगुरवे नमः ॥ 

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Sri P R Ramamurthy Ji was the author of this website. When he started this website in 2009, he was in his eighties. He was able to publish such a great number of posts in limited time of 4 years. We appreciate his enthusiasm for Sanskrit Literature. Authors story in his own words : http://ramamurthypr1931.blogspot.com/

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