SRI SHARADA BHUJANGAPRAYATA STUTIH

                   श्रीशारदाभुजङ्गप्रयातस्तुतिः
( शृङ्गेरि श्रीजगद्गुरु श्रीसच्चिदानन्दशिवाभिनव-
      नृसिंहभारतीस्वामिभिः विरचिता)
स्मितोद्धूतराकानिशानायकायै
   कपोलप्रभानिर्जितादर्शकायै।
स्वनेत्रावधूताङ्गजातध्वजायै
   सरोजोत्थसत्यै नमः शारदायै॥१॥
भवाम्भोधिपारं नयन्त्यै स्वभक्ता-
     न्विनायासलेशं
कृपानौकयैव।
भवाम्भोजनेत्रादिसंसेवितायै
     अजस्रं हि कुर्मो नमः शारदायै॥२॥  
सुधाकुम्भमुद्राविराजत्करायै
     व्यथाशून्यचित्तैः
सदा सेवितायै।
क्रुधाकामलोभादिनिर्वापणायै
     विधातृप्रियायै
नमः शारदायै॥३॥
नतेष्टप्रदानाय भूमिं गतायै
    गतेनाच्छबर्हाभिमानं
हरन्त्यै।
स्मितेनेन्दुदर्पं च तोषं व्रजन्त्यै
    सुतेनेव नम्रैर्नमः
शारदायै ॥४॥
नतालीयदारिद्र्यदुःखापहन्त्र्यै
    तथा भीतिभूतादिबाधाहरायै।                              
फणीन्द्राभवेण्यै गिरीन्द्रस्तनायै
    विधातृप्रियायै
नमः शारदायै॥५॥
सुधाकुम्भमुद्राक्षमालाविराज-
   त्करायै कराम्भोजसंमर्दितायै
सुराणां वराणां सदा मानिनीनां
   मुदा सर्वदा ते
नमः शारदायै ॥६॥
समस्तैश्च वेदैः सदा गीतकीर्त्यै
  निराशान्तरङ्गाम्बुजातस्थितायै।
पुरारातिपद्माक्षपद्मोद्भवाद्यै-
   र्मुदा पूजितायै
नमः शारदायै॥७॥
अविद्यापदुद्धारबद्धादरायै
    तथा बुद्धिसंपत्प्रदानोत्सुकायै।
नतेभ्यः कदाचित्स्वपादाम्बुजाते
    विधेः पुण्यवत्यै
नमः शारदायै॥८॥
पदाम्भोजनम्रान्कृते भीतभीता-
  न्द्रुतं मृत्युभीतेर्विमुक्तान्विधातुम्।
सुधापूर्णकुम्भं करे किं विधत्से
   द्रुतं पाययित्वा यथातृप्ति वाणि ॥९॥
महान्तो हि मह्यं हृदम्भोरुहाणि
   प्रमोदात्समर्प्यासते
सौख्यभाजः।
इति ख्यापनायानतानां कृपाब्धे
   सरोजान्यसंख्यानि
धत्से किमम्ब॥१०॥
   
शरच्चन्द्रनीकाशवस्त्रेण वीता
     कनद्भर्मयष्टेरहङ्कारभेत्त्री।
किरीटं सताटङ्कमत्यन्तरम्यं
     वहन्ती हृदब्जे
स्फुरत्वम्ब मूर्तिः ॥११॥
निगृह्याक्षवर्गं तपो वाणि कर्तुं
   न शक्नोमि यस्मादवश्याक्षवर्गः।
ततो मय्यनाथे दया पारशून्या
   विधेया विधातृप्रिये
शारदाम्ब ॥१२॥
कवित्वं पवित्वं द्विषच्छैलभेदे
   रवित्वं नतस्वान्तहृद्ध्वान्तभेदे।
शिवत्वं च तत्त्वप्रबोधे ममाम्ब
   त्वदङ्घ्र्यब्जसेवापटुत्वं
च देहि ॥१३॥
 विलोक्यापि लोको
न तृप्तिं प्रयाति
     प्रसन्नं
मुखेन्दुं कलङ्कादिशून्यम्।
  यदीयं ध्रुवं प्रत्यहं
तां कृपाब्धिं
      भजे शारदाम्बामजस्रं
मदम्बाम् ॥१४॥
  पुरा चन्द्रचूडो
धृताचार्यरूपो
      गिरौ शृङ्गपूर्वे प्रतिष्ठाप्य चक्रे।
  समाराध्य मोदं ययौ
यामपारं
      भजे शारदाम्बामजस्रं
मदम्बाम् ॥१५॥ 
   भवाम्भोधिपारं
नयन्तीं स्वभक्ता-
      न्भवाम्भोजनेत्राजसंपूज्यमानाम्।
   भवद्भव्यभूताघविध्वंसदक्षां
      भजे शारदाम्बामजस्रं
मदम्बाम् ॥१६॥
    वराक त्वरा का
तवेष्टप्रदाने
       कथं पुण्यहीनाय
तुभ्यं ददानि।
   इति त्वं गिरां
देवि मा ब्रूहि यस्मा-
       दघारण्यदावानलेति
प्रसिद्धा ॥१७॥
      इति 
श्रीशारदाभुजङ्गप्रयातस्तुतिः
सम्पूर्णा

SRI VIDHIMANASAHAMSA STOTRAM

           श्रीविधिमानसहंसास्तोत्रम्
   ( शृङ्गेरि श्रीजगद्गुरु श्रीसच्चिदानन्दशिवाभिनव-
      नृसिंहभारतीस्वामिभिः विरचितम्)
पापिषु प्रथमतो गणनीयं पुण्यवज्जनसुदूरगतं माम्।
नागराजमिव पङ्कजचक्षुर्वाणि पाहि विधिमानसहंसे॥१॥
मांसरक्तमलपूर्णशरीरे पूतिगन्धनिलयेऽस्थिवर्ये।
आत्मबुद्धिमचलां दधतं मां वाणि पाहि विधिमानसहंसे॥२॥
मोहलोभमुखरोगविशीर्णं जन्ममृत्युभयतप्तहृदब्जम्।
शान्तिदान्तिमुखमातृविहीनं वानि पाहि विधिमानसहंसे॥३॥
वेदशीर्षपरिशीलनशून्यं पादपद्मनमनेऽप्यलसं ते।
पाणिपङ्कजलसच्छुकबाले वाणि पाहि विधिमानसहंसे॥४॥
     इति श्रीविधिमानसहंसास्तोत्रं सम्पूर्णम्

BHAVASODARYASHTAKAM

                           श्रीभवसोदर्यष्टकम्

( शृङ्गेरि श्रीजगद्गुरु श्रीसच्चिदानन्दशिवाभिनव-

      नृसिंहभारतीस्वामिभिः विरचितम्)
भजतां कल्पलतिका भवभीतिविभञ्जनी।
भ्रमराभकचा भूयाद्भव्याय भवसोदरी ॥१॥
करनिर्जितपाथोजा शरदभ्रनिभाम्बरा।
वरदानरता भूयाद्भव्याय भवसोदरी ॥२॥
काम्या पयोजजनुषा नम्या सुरवरैर्मुहुः।
रम्याब्जवसतिर्भूयाद्भव्याय भवसोदरी ॥३॥
कृष्णादिसुरसंसेव्या कृतान्तभयनाशिनी।
कृपार्द्रहृदया भूयाद्भव्याय भवसोदरी ॥४॥
मेनकादिसमाराध्या शौनकादिमुनिस्तुता।
कनकाभतनुर्भूयाद्भव्याय भवसोदरी ॥५॥
वरदा पदनम्रेभ्यः पारदा भववारिधेः।
नीरदाभकचा भूयाद्भव्याय भवसोदरी ॥६॥
विनताघहरा शीघ्रं विनतातनयार्चिता।
पीनतायुक्कुचा भूयाद्भव्याय भवसोदरी ॥७॥
वीणालसत्पाणिपद्मा काणादमुखशास्त्रदा ।
एणाङ्कशिशुभृद्भूयाद्भव्याय भवसोदरी ॥८॥
अष्टकं भवसोदर्या कष्टनाशकरं द्रुतम्।
इष्टदं संपठञ्छीघ्रमष्टसिद्धिरवाप्नुयात् ॥९॥
 इति   श्रीभवसोदर्यष्टकं सम्पूर्णम्

SRI SHARADAMBA STOTRAMALIKA

                         श्रीकालटिक्षेत्रे
              श्रीशारदाम्बास्तोत्रमालिका
( शृङ्गेरि श्रीजगद्गुरु श्रीसच्चिदानन्दशिवाभिनव-
      नृसिंहभारतीस्वामिभिः विरचिता)
आसेतुशीतगिरिमध्यनिवासलोका-
  न्स्वस्वाश्रमाद्युचितकर्मनिषक्तचित्तान्।
श्रीघ्रं विधाय करुणामृतवारिराशे
   श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥१॥
हंसादिमस्करिवरार्चितपादपद्मे
   हंसाग्र्ययाननिरते मुखनिर्जिताब्जे।
कंसारिमुख्यसुरनायकपूज्यमाने
   श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं
कुरुष्व ॥२॥
श्वेताम्बुसंभवनिवासनिषक्तबुद्धे
    शीतांशुराजतमहीधरतुल्य वर्णे।
वाताम्बुमात्रपरितुष्टजनालिसेव्ये
     श्रीशारदाम्ब
सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥३॥
क्रव्यादवैरिमुखदेववरेड्यपादे
   सुव्याहृतिप्रदपदाम्बुजजातुपाते।
निर्व्याजपूर्णकरुणामृतजन्मभूमे
   श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥४॥
भक्त्यादिगन्धरहितान्गुरुपादपद्मे
  तत्सेवने च सुतरां विनिवृत्तभावान्।
लोकानवाम्ब परिशुद्धहृदो विधाय
  श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥५॥
अज्ञातवेदनिचयस्मृतिमुख्यगन्धा-
  न्कामार्थमात्रपुरुषार्थधियो मनुष्यान्।
आम्नायमार्गपथिकांस्तरसा विधाय
   श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥६॥
देहात्मवादनिरतान्सततं हि मोदा-
   त्तत्पालनैकनिरतानपि नीचवृत्त्या।
किं च स्ववृत्तिविमुखान्परिपालयन्ती
   श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥७॥
  
पापाम्बुराशिविनिमज्जनमुह्यमान-
     मेनं दुरन्तविषयाशमजास्यवासे।
लोकं निवार्य तरसा कृपया दुराशां
     श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥८॥
उद्वेगकालपरितुष्टहृदम्बुजात-
    मप्यैहिकादिनिचये स्पृहया विहीनम्।
भीत्या रुषा च सुतरां रहितं विधाय
    श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥९॥
आकल्पकालटिनिवासनिबद्धदीक्षा
    भूत्वा तथाखिलजगत्यपि धर्मवृद्धिम्।
प्रापय्य लोकपरिरक्षणमाचरन्ती
    श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥१०॥
भाग्याब्धिपूर्णशरदिन्दुसमूहरूपे
   भक्तौघसस्यसितभिन्नपयोदपङ्क्ते।
वेधोमनोऽम्बुजजनिबालदिवाक्राभे
   श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं
कुरुष्व ॥११॥
प्राणादिवायुनिचयं विनिरुद्ध्य चेतो
      हृत्पङ्कजे चिरतरं तव  दिव्यमूर्तेः।
ध्यानं विभुं रचयितुं प्रविधाय मातः
     श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥१२॥
  काणादकापिलमुखेषु समस्तशास्त्रे-
     ष्वव्याहतां प्रतिभया सहितां मनीषाम्।
 जात्वप्यकर्णविषयेषु वितीर्य तूर्णं
      श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥१३॥
  लक्ष्येऽखिलश्रुतिमहादिमवाक्यपङ्क्तेः
       ऋक्षेशगर्वपरिशातनदक्षवक्त्रे।
   यक्षेशपाशिमुखदिक्पतिपूज्यपादे
        श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥१४॥
    दारात्मजावसथपालनसक्तचित्तां-
         स्तत्पालनात्तबहुदुःखततीश्च सोढ्वा।
     स्वप्नेऽपि सौख्यरहितान्परिपाल्य लोका-
         ञ्छ्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥१५॥
    कारुण्यपूर्णनयने कलिकल्मषघ्नि
         कन्दर्पवैरिसहजे कमलायताक्षि।
     कस्तूरिकामकरिकाश्रितगण्डभागे
          श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥१६॥       
    
     नैवापहाय निजधर्ममतीव कष्ट-
          कालेऽपि वाणि सुतरां निजधर्मवाञ्छाः।
      भूयासुराशु पुरुषाः कुरु तद्वदम्ब
           श्रीशारदाम्ब
सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥१७॥
 
      ईहाविहीनजनसन्ततचिन्त्यमान-
          पादारविन्दयुगले प्रणतव्रजाय।
      ईशित्वसिद्धिमुखसिद्धिततिप्रदात्रि
           श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥१८॥
      बालारुणाधरविनिर्जितपक्वबिम्बे
          चेलावधूतशरदभ्रसनस्तगर्वे।
      लीलाविनिर्मितविचित्रजगत्समूहे
          श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥१९॥
      
       भक्तिं वितीर्य सुदृढां तव पादपद्मे
           दुःखालयेषु विषयेषु विरक्तिदार्ढ्यम्।
       औत्सुक्यमप्यविरलं निगमान्तपाठे
            श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं
कुरुष्व ॥२०॥
        दूर्वादिमत्तगजसिंहधुरन्धरत्वं
             शर्वादिसेवितपदे तरसा वितीर्य।
        दुर्वासनां हृदि गतां तरसा प्रमथ्य
             श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥२१॥
         पादाम्बुजप्रणतलोकविचित्रकाव्य-
             कर्तृत्वदानचतुरे चतुरास्यजाये।
         कुम्भीन्द्रकुम्भपरिपन्थिकुचे कुमारि
              श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥२२॥
         चापल्यनैजजनिभूमिहृदम्बुजातं
            पापाम्बुराशिदृढमग्नमपेतपुण्यम्।
         आत्मावबोधविधुरं गुरुभक्तिहीनं
             श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥२३॥
         रङ्कोऽपि यत्करुणया प्रभवेत्सुरेशो
               मूकोऽपि तद्गुरुमहो वचसा जयेच्च।
         सा त्वं प्रभूतधनवाग्विभवप्रदात्री
               श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥२४॥
          अम्बाशु बोधय कृपाभरितैः कटाक्षै-
             स्तत्त्वं परं यदवलोकनतो न भूयात्।
          भूयोऽपि जन्म पदनम्रततेः कदाचि-
              ञ्छ्रीशारदाम्ब
सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥२५॥
           कालट्यभिख्यपुरवासिनिबद्धभावे
              कालप्रतीपसहजे कलकण्ठकण्ठे।
            कायप्रभाजिततुषारसितांशुशोभे
               श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥२६॥
             यत्त्वं हि वीक्षणलवेन नतार्भकाणां
                
संपोषणं प्रकुरुषे जगदम्ब सार्थम्।
             मीनाम्बकत्वमभजद्भवतीह तस्मा-
                
च्छ्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व॥२७॥
              अष्टाङ्गयोगमखिलं तरसोपदिश्य
                 
नीत्वा च मध्यपदवीं सहशक्तिवायुम्।
               चेतश्च धामनि परे दृढमारचय्य
                  
श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥२८॥
                
ऐक्यावबोधनकृते प्रणमज्जनानां
                   
वक्त्रे विधुत्वमथ नेत्रयुगे झषत्वम्।
                 
मध्ये च पञ्चमुखतां परिधारयन्ती
                    श्रीशारदाम्ब
सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥२९॥
               श्रीशंकरार्यकरपङ्कजपूजिताङ्घ्रे
                 
पाशं विभिद्य तरसा भवनामभाजम्।
                साशंसदाहिविषयेऽप्युपभुक्तपूर्वे
                  
श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥३०॥
                 कीरार्भकप्रविलसत्करपङ्कजाते
                    
स्वाराज्यदानपरितोषितनम्रवृन्दे।
                स्मेरास्यकान्तिपरिधूतसुधांशुबिम्बे
                     
श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥३१॥   
   
                कारुण्यसागरनिमग्नहृदम्बुजाते
                    
लावण्यजन्मसदनीकृतनैजदेहे।
                कारुण्यनित्यविहृतेर्निलयाङ्गसौधे
                    
श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥३२॥   
           
          
                
श्रीशेशपद्मजमुखामरपूजिताङ्घ्रे
                     
श्रीबोधदाननिरते प्रणमज्जनेभ्यः ।
                 
श्रीकण्ठसोदरि कृपामृतवरिराशे
                      श्रीशारदाम्ब
सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥३३॥
               पूर्णानदीतटविहारविलोलचित्ते
                   
तूर्णानतेष्टततिदाननिबद्धदीक्षे।
               चूर्णायिताखिलचिरात्तहृदन्धकारे
                   
श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥३४॥
                वैराग्यजन्मनिलयैः परिसेव्यमाने
                    
वैयासकिप्रमुखमौनिजनैर्नितान्तम्।
                सच्चित्सुखात्मकतनो विधिपुण्यराशे
                     
श्रीशारदाम्ब सितचित्तमिमं कुरुष्व ॥३५॥
               यां वेत्तुमिच्छति मखानशनाद्युपायै-
                   
र्लोके द्विजावलिरसौ बहुपुण्यपाकात्
                सोपायहीनमपि नैजकृपातिरेका-
                     च्छ्रीशारदाम्ब
सितचित्तमिमं कुरुष्व॥३६॥

SRI VANI PANYAVALMBA STUTI

        श्रीवाणीपाण्यवलम्बस्तुतिः
( शृङ्गेरि श्रीजगद्गुरु श्रीसच्चिदानन्दशिवाभिनव-
      नृसिंहभारतीस्वामिभिः विरचिता)
जाड्यवारिधिनिमग्नसुबुद्धेर्जातरूपसदृशच्छविकाये।
वासवादिदिविषद्प्रवरेड्ये वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥१॥
पाणिनिर्जितसरोरुहगर्वे पारदे विविधदुःखपयोधेः।
वासनाविरहितैर्लघुलभ्ये वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२॥
शृङ्गशैलशिखरादृतवासेऽनङ्गगर्वहरशंभुसगर्भ्ये।
तुङ्गमङ्गलनिदानकटाक्षे वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥३॥
शारदाभ्रसदृशाम्बरवीते नारदादिमुनिचिन्तितपादे।
नीलनीरदसदृक्कचभारे वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥४॥
यत्पदाम्बुरुहपूजकवक्त्रादाशु निःसरति वागनवद्या।
स्वर्धुनी हिमगिरेरिव सा त्वं वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥५॥
जातुचित्प्रणमतोऽपि पदाब्जे देवराजसदृशान्प्रकरोषि।
यत्तदम्ब चरणौ तव वन्दे वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥६॥
शान्तिदान्तिमुखसाधनयुक्तैर्वेदशीर्षपरिशीलनसक्तैः।
आदरादहरहःपरिसेव्ये वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥७॥
कोशपञ्चकनिषेधनपूर्वं  क्लेशपञ्चकमपि प्रविहाय।
यां प्रपश्यति यतिर्हृदि सा त्वं वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥८॥
वन्द्यमानचरणे सुरबृन्दैर्गीयमानचरिते तुरगास्यैः।
जप्यमाननिजनाम्नि मुनीन्द्रैर्वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥९॥
संनिरीक्ष्य कमलानि यदङ्घ्री  साम्यमाप्तुमनयोस्तपसाम्भः।
कण्ठदघ्नमधिजग्मुरसौ सा वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥१०॥
पुण्यमम्ब न कृतं मतिपूर्वं पापमेव रचितं त्वतियत्नात्।
तेन तप्तमनिशं हृदयाब्जं वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥११॥
नाहमम्ब सरसां च सुवर्णामातनोमि कवितां विविधार्थाम्।
केन पूजयति मां भुवि लोको वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥१२॥
अक्षपादकणभुक्फणिनाथैर्देवहूतिसुतजैमिनिमुख्यैः।
प्रोक्तशास्त्रनिचये न हि बुद्धिर्वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥१३॥
नैव पादसरसीरुहयोस्ते पूजनं प्रतिदिनं प्रकरोमि।
हेतुशून्यकरुणाजनिभूमे वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥१४॥
संनिरुध्य हृदयाम्बुजमध्ये स्वान्तमम्ब तव सुन्दरमूर्तेः।
ध्यानमप्यनुदिनं न हि कुर्वे वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥१५॥
दुःखजन्मवसुधा विषया इत्यादरेण श्रुतिभिः श्रुतिशीर्षैः।
बोधितोऽपि न हि यामि विरक्तिं वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥१६॥
पुत्रमित्रगृहदारजनन्यो भ्रातृबन्धुधनभृत्यमुखा वा।
नैव कालवशगस्य सहाया वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥१७॥
एकमेवसदबाधितमन्यत्तुच्छमित्यसकृदागमशीर्षम्।
वक्त्यथापि न निवृत्तिरनित्याद्वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥१८॥
जन्ममृत्युभयनीरधिमध्ये मज्जतो विविधरुङ्मकराढ्ये।
पश्यतोऽपि न हि भीतिरनेकान्वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥१९॥
त्वत्पदाम्बुरुहयुग्ममपास्य प्राक्तनाघपरिमार्जनदक्षं ।
नास्ति तारणविधानसमर्थं वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२०॥
बालचन्द्रपरिचुम्बितशीर्षे बाहुसक्तकनकाङ्गदरम्ये।
कण्ठलोलवरमौक्तिकहारे वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२१॥
आननेन चरणेन कटाक्षैर्नीरजासनमनोहरकान्ते।
चन्द्रमम्बुजमलिं च हसन्ती वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२२॥
मध्यनिर्जितमृगाधिपगर्वे मत्तवारणसदृग्गतिशीले।
मञ्जुशिञ्जितमहाभरणाढ्ये वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२३॥
तापमम्ब विनिवार्य समस्तं पापमप्यहरहःकृतमाशु।
चित्तशुद्धिमचिरात्कुरुमातर्वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२४॥
पादपद्मयुगमर्दनरूपा पात्रवस्त्रपरिशुद्धिमुखा वा।
श्रीगुरोर्न हि कृता बत सेवा वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२५॥
मन्त्रराजलयपूर्वकयोगान्योगिनीहृदयमुख्यसुतन्त्रान्।
नैव वेद्मि करुणामृतराशे वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२६॥
कामलोभमदपूरितचेतःप्राणिदूरनिजपादपयोजे।
कामनिर्मथनदक्षसगर्भ्ये वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२७॥
अङ्गयष्टिरुचिनिर्जितभर्मे कुम्भिकुम्भपरिपन्थिकुचाढ्ये।
भृङ्गनीलचिकुरे तनुमध्ये वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२८॥
स्वाङ्घ्रिसेवनसमागतकाष्ठाकान्तदारकरमर्दितपादे।
स्वामिनि त्रिजगतां धृतवीणे वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥२९॥
नीलनागनिवहा विविशुर्यद्वेणिकां मुहुरवेक्ष्य बिलानि।
लज्जयाशु विधिभामिनि सा त्वं वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥३०॥
शान्तिदान्तिविरतिप्रमुखा मां मोहकोपमुखरोगविशीर्णम्।
वीक्ष्य यान्ति तरसा बहुदूरं वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥३१॥
काकलोकसदृशः पिकलोकः केकिजालमपि शोकि नितान्तम्।
यद्वचः श्रवणतः खलु सा त्वं वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥३२॥
राजराजपदवीं क्षणमात्राद्याति यत्पदसरोरुहनत्या।
दीनराडपि जनो भुवि सा त्वं वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥३३॥
श्रीघ्रकाव्यकरणेऽम्ब पटुत्वं यान्ति मूकबधिरादिममर्त्याः।
यत्पदप्रणतितो भुवि सा त्वं वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥३४॥
ब्राह्मि भारति सरस्वति भाषे वाक्सवित्रि कमलोद्भवजाये।
पाणिपङ्कजलसद्वरवीणे वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥३५॥
चामरप्रविलसत्करगौरी विष्णुदारपरिसेवितपार्श्वे।
चामराजसुतपालनसक्ते वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥३६॥
शेषशैलपतिनामकमन्त्रिश्रेष्ठपालनपरायणचित्ते।
शेवधेऽब्जभवपूर्ववृषाणां वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥३७॥
श्रीनृसिंहशिशुरामयुतश्रीकण्ठपालननिषक्तमनस्के।
श्रीशशंकरमुखामरपूज्ये वाणि देहि मम पाण्यवलम्बम्॥३८॥
    इति श्रीवाणीपाण्यवलम्बस्तुतिः
सम्पूर्णा
 

  

SRI SHARADA STOTRAM

                                  श्रीशारदास्तोत्रम्         
( शृङ्गेरि श्रीजगद्गुरु श्रीसच्चिदानन्दशिवाभिनव-
      नृसिंहभारतीस्वामिभिः विरचितम्)
निदानमनुकम्पायाः पदाधःकृतपङ्कजाम्।
सदा नम्रालिसुखदां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥१॥
विदामग्रसरो भूयाद्यदालोकनमात्रतः।
रदालिजितकुन्दां तां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२॥
अम्भोदनीलचिकुरां कुम्भोद्भवनिषेविताम्।
दम्भोलिधारिसंसेव्यां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३॥
रंभानिभोरुयुगलां कुम्भाभस्तनराजिताम्।
शुम्भादिदैत्यशमनीं कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४॥
अव्याजकरुणामूर्तिं सुव्याहारप्रदायिनीम्।
रव्यादिमण्डलान्तःस्थां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥५॥
मह्यम्ब्वादिजगद्रूपां मह्यं लोकेषु ये जनाः।
द्रुह्यन्ति तेषां भयदां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥६॥
शल्यापहारचतुरां वल्ल्याशासितमार्दवाम्।
कल्याणदाननिरतां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥७॥
अस्मानवाप्तकामांस्ते यस्मात्प्रकुरुतेकृपा।
तस्मात्कृतोपकारां त्वां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥८॥
कुन्देन्दुदुग्धधवलां मन्देतरधनं जवात्।
विन्देद्यदङ्घ्रिनम्रस्तां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥९॥
वन्दारुजनवृन्दानां मन्दारव्रतधारिणीम्।
वृन्दारकेन्द्रविनुतां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥१०॥
क्षमानिर्धूतवसुधां शमादिगुणदायिनीम्।
रमासंस्तुतचारित्रां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥११॥
समाराधयतां नैव यमाद्भीर्यत्पदाम्बुजे।
समाधिमात्रगम्यां तां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥१२॥
सुमालिविलसद्ग्रीवां समानाधिकवर्जिताम्।
कुमारगणनाथेड्यां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥१३॥
सामादिवेदविनुतां भूमानन्दप्रदायिनीम्।
सीमातिलङ्घिकरुणां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥१४॥
गण्डाग्रराजत्कस्तूरीं  खण्डान्यसुखदायिनीम्।
शुण्डालास्याग्निभूसेव्यां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥१५॥
तुण्डाधरीकृतविधुं चण्डाज्ञाननिवारिणीम्।
भण्डादिदैत्यदर्पघ्नीं कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥१६॥
 
जुष्ट्वा वेदशिरोवाग्भिरिष्ट्वा च विविधैर्मखैः।
दृष्ट्वा हृष्यन्ति लोके यां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥१७॥
तेजोविजितगाङ्गेयां रजोगुणनिवारिणीम्।
भुजोद्धूतबिसाहंतां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥१८॥
दिवाकरेन्दुताटङ्कां प्रवाहकविताप्रदाम्।
सवादिकर्मभिस्तुष्टां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥१९॥
लवाद्यस्याः कटाक्षस्य सवाजिरथकुञ्जराम्।
अवाप्नुयाच्छ्रियं लोकः कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२०॥
दुर्लभां दुष्टमनसां सुलभां शुद्धचेतसाम्।
वलन्मुक्तासरां कण्ठे कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२१॥
द्राक्षासदृक्षवाग्दात्रीं वीक्षापालितविष्टपाम्।
लाक्षारञ्जितपादाब्जां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२२॥
धृत्वा लक्ष्यं भ्रुवोर्मध्ये कृत्वा कुम्भकमादरात्।
ध्यात्वा हृष्यन्ति यां लोकाः कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२३॥
निष्पापाराध्यचरणां दुष्प्रापामकृतात्मभिः।
पुष्पालिगर्भितकचां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२४॥
नीलाब्जतुल्यनयनां बालाब्जविलसत्कचाम्।
कैलासनाथविनुतां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२५॥
लीलानिर्मितलोकालिं लोलामम्बुजसंभवे।
कालाटवीदवशिखां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२६॥
पुराणागमसंवेद्यां विरागिजनसेवितां।
कराग्रविलसन्मालां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२७॥
मुरारिमुखसंसेव्यां सुरारिमदमर्दिनीम्।
स्वरादिभुवनाधीशां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२८॥
सुराचार्यसदृक्षः स्याद्गिरा यत्पदपूजकः।
चराचरजगत्कर्त्रीं कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥२९॥
वीराराध्यपदाम्भोजां क्रूरामयविनाशिनीम्।
घोरापस्मारशमनीं कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३०॥
शरणं सर्वलोकानां शरदभ्रनिभाम्बराम्।
करराजद्बोधमुद्रां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३१॥
स्मरणात्सर्वपापघ्नीं चरणाम्बुजयोः सकृत्।
वरदां पदनम्रेभ्यः कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३२॥
पर्णाहारैः सेव्यमानां कर्णाग्रलसदुत्पलाम्।
स्वर्णाभरणसंयुक्तां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३३॥
पूर्णचन्द्रसमानास्यां तूर्णमिष्टप्रदायिनीम्।
चूर्णयन्तीं पापवृन्दं कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३४॥
प्रभाजिततटित्कोटिं सभासु प्रतिभाप्रदाम्।
विभावरीशतुल्यास्यां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३५॥
मत्तमातङ्गगमनां चित्तपद्मगतां सतां।
वित्तनाथार्चितपदां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३६॥
यतिनाथसमाराध्यां मतिदानधुरंधराम्।
पतितायापि वरदां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३७॥
यथा दुष्टा लिपिर्वैधी वृथा स्यान्नम्रफालगा।
तथा करोति यद्ध्यानं कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३८॥
रोगालिवारणचणां  भोगानां पूगदायिनीम्।
योगाभ्यासरतध्येयां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥३९॥
विधातुममरान्नम्रान्सुधाकलशधारिणीम्।
क्रुधारहितहृल्लभ्यां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४०॥
वीतां निर्जरनारीभिर्गीतां गन्धर्वगायकैः।
पीताम्बरादिविनुतां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४१॥
शिक्षिताखिलदैतेयां कुक्षिस्थितजगत्त्रयीम्।
रक्षितामरसन्दोहां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४२॥
शिखाभिर्गीतमाहात्म्यां  सुखाराध्यपदां श्रुतेः।
नखांशुजितचन्द्राभां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४३॥
शोकापहारचतुरां राकाचन्द्रसमाननाम्।
केकासदृशवाग्भङ्गीं कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४४॥
शृङ्गाद्रिवासनिरतां गङ्गाधरसहोदरीं।
तुङ्गातटचरीं भूयः कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४५॥
शृङ्गारजन्मधरणिं गङ्गां तापनिवारणे।
तुङ्गां पयोधरयुगे कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४६॥
सुयशोदाननिरतां शयनिर्जितपल्लवाम्।
इयत्तातीतसौन्दर्यां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४७॥
स्वर्गापवर्गसुखदां दुर्गापद्विनिवारिणीम्।
दुर्गाशाकम्भरीरूपां कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४८॥
कदा शृङ्गगिरिं द्रक्ष्ये कदा तुङ्गां पिबाम्यहम्।
कदा स्तोष्येऽग्रतो देव्याः कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥४९॥
कदा पापक्षयोभूयात्कदा पुण्यसमागमः।
कदा पदे नमस्यामि कदा द्रक्ष्यामि शारदाम्॥५०॥
सुहृदः शत्रवो वा मे  ये सन्ति भुवि शारदे।
अविशेषेण सर्वांस्तान्पाहि दत्त्वा शुभां धियम् ॥५१॥
शारदे त्वत्पदाम्भोजलोलम्बायितमानसः।
अकार्षं स्तोत्रमेतच्छ्रीसच्चिदानन्दनामकः॥५२॥
य इदं प्रपठेद्भक्त्या शारदास्तोत्रमण्डलम्।
प्राप्नोति सततं लोके मङ्गलानां स मण्डलम् ॥५३॥

BRAHMA KRITA SARASWATI STOTRAM

                      ब्रह्माकृतसरस्वतीस्तोत्रम्
ऊँ अस्य श्रीसरस्वतीस्तोत्रमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः।
गायत्री छन्दः।
श्रीसरस्वती देवता।
धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः
आरूढा श्वेतहंसे भ्रमति च गगने दक्षिणे चाक्षसूत्रं
  वामे हस्ते च दिव्याम्बरकनकमयं पुस्तकं ज्ञानगम्या।
सा वीणां वादयन्ती स्वकरकरजपैः शास्त्रविज्ञानशब्दैः
   क्रीडन्ती दिव्यरूपा करकमलधरा भारती सुप्रसन्ना॥१॥
श्वेतपद्मासना देवी श्वेतगन्धानुलेपना।
अर्चिता मुनिभिः सर्वैः ऋषिभिः स्तूयते सदा।
एवं ध्यात्वा सदा देवीं वाञ्छितं लभते नरः ॥२॥ 
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
   वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
   वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥३॥
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
   या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
   सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥४॥
ह्रीं ह्रीं हृद्यैकबीजे शशिरुचिकमले कल्पविस्पष्टशोभे
   भव्ये भव्यानुकूले कुमतिवनदवे विश्ववन्द्याङ्घ्रिपद्मे।
पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणतजनमनोमोदसंपादयित्रि
   प्रोत्फुल्लज्ञानकूटे हरिनिजदयिते देवि संसारसारे॥५॥
ऐं ऐं ऐं इन्ष्टमन्त्रे कमलभवमुखाम्भोजभूतिस्वरूपे
  रूपारूपप्रकाशे सकलगुणमये निर्गुणे निर्विकारे।
न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदितविषये नापि विज्ञाततत्त्वे
  विश्वे विश्वान्तरात्मे सुरवरनमिते निष्कले नित्यशुद्धे ॥६॥
ह्रीं ह्रीं ह्रीं जाप्यतुष्टे हिमरुचिमुकुटे वल्लकीव्यग्रहस्ते
   मातर्मातर्नमस्ते दह दह जडतां देहि बुद्धिं प्रशस्तां।
विद्यां वेदान्तवेद्यां परिणतपठिते मोक्षदे मुक्तिमार्गे
    मार्गातीतप्रभावे भव मम वरदा शारदे शुभ्रहारे ॥७॥
धीर्धीर्धीर्धारणाख्ये धृतिमतिनतिभिर्नामभिः कीर्तनीये
   नित्येऽनित्ये निमित्ते मुनिगणनमिते नूतने वै पुराणे।
पुण्ये पुण्यप्रवाहे हरिहरनमिते नित्यशुद्धे सुवर्णे
   मातर्मात्रार्धतत्त्वे मतिमतिमतिदे माधवप्रीतिमोदे॥८॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं स्वस्वरूपे दह दह दुरितं पुस्तकव्यग्रहस्ते
    सन्तुष्टाकारचित्ते स्मितमुखि सुभगे जृम्भिणि स्तम्भविद्ये।
मोहे मुग्धप्रभावे कुरु मम कुमतिध्वान्तविध्वंसमीड्ये
   गीर्गीर्वाग्भारती त्वं कविवररसनासिद्धिदे सिद्धसाध्ये ॥९॥
स्तौमि त्वां त्वां च वन्दे मम खलु रसनां मा कदाचित्त्यजेथा
   मा मे बुद्धिर्विरुद्धा भवतु न च मनो देवि मे यातु पापम्।
मा मे दुःखं कदाचित् क्वचिदपि विषयेऽप्यस्तु मे नाकुलत्वं
   शास्त्री वादे कवित्वे प्रसरतु मम धीर्मास्तु कुण्ठा कदापि॥१०॥
इत्येतैः श्लोकमुख्यैः प्रतिदिनमुषसि स्तौति यो भक्तिनम्रो
   वाणी वाचस्पतेरप्यविदितविभवो वाक्पटुर्मुष्टकण्ठः।
स स्यादिष्टार्थलाभैः सुतमिव सततं पाति तं सा च देवी
   सौभाग्यं तस्य लोके प्रभवति कविता विघ्नमस्तं प्रयाति॥११॥
निर्विघ्नं तस्य विद्या प्रभवति सततं चाश्रुतग्रन्थबोधः
   कीर्तिस्त्रैलोक्यमध्ये निवसति वदने शारदा तस्य साक्षात्।
दीर्घायुर्लोकपूज्यः सकलगुणनिधिः सन्ततं राजमान्यो
    वाग्देव्याः संप्रसादात् त्रिजगति विजयी जायते सत्सभासु॥१२॥
ब्रह्मचारी व्रती मौनी त्रयोदश्यां
निरामिषः।
सारस्वतो जनः पाठात् सकृदिष्टार्थलाभवान् ॥१३॥
पक्षद्वये त्रयोदश्यामेकविंशतिसंख्यया ।
अविच्छिन्नः पठेद्धीमान् ध्यात्वा देवीं सरस्वतीम् ॥१४॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः सुभगो लोकविश्रुतः।
वाञ्छितं फलमाप्नोति लोकेऽस्मिन्नात्र संशयः ॥१५॥
ब्रह्मणेति स्वयं प्रोक्तं सरस्वत्याः स्तवं शुभम्।
प्रयत्नेन पठेन्नित्यं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥१६॥
     
    

SARASWATI STOTRAM -5

   सरस्वतीस्तोत्रम्-५
          ( श्रीहरिहरशर्मा विरचितम्)
गुरुवन्दना-
अज्ञानाब्धिनिमग्नभौतिकतनूनुत्तार्य चिन्नौकया
शिष्यांल्लोकहितङ्करान् कुशलिनः कुर्यात् कटाक्षेण यः।
सत्यं ब्रह्म निदानगीर्भिरनिशं मिथ्या जगच्च ब्रुव-
ञ्छङ्कापङ्किलमानसाब्जसदने हंसो गुरुः सीदतु॥
श्री सद्गुरुचरणारविन्दाभ्यां नमः
     अथ सरस्वतीस्तोत्रम् (कुसुममञ्जरीवृत्तम्)
छ्त्रचामरविराजिते निजयशःप्रकाशितदिशान्तरे
     गात्रकान्तिपरिधूतशम्बररिपुप्रिये विधिमनः प्रिये।
अर्धचन्द्रफणिभूषणाङ्कितसुवर्णरत्नमकुटोज्ज्वले
    ध्वंसयाऽघमव मां सरस्वति सुवाक्‍प्रबोधमपि मे दिश ॥१॥
नीरदाभचिकुरान्तरालधृतदीर्घकुङ्कुमसुलेखने
    स्वर्णवर्णनिजफालदेशलसदुद्यदर्कतिलकाञ्चिते।
भक्तमानससमीपकर्षणचणं तवाऽम्ब करुणेक्षणं
    पातयाऽऽशु मयि सेवके नतजनार्तिभञ्जनि परात्परे ॥२॥
शुक्ररश्मिगणदर्पहारिरुचिनासिकाभरणभासुरे
     दर्पणायितकपोलबिम्बितसुशोभिकर्णमणिकुण्डले।
पुष्पवन्तरुचितप्तहेमकृतगण्डभूषणविराजिते
     ब्राह्मि माङ्गलिकसूत्रधारिणि नतेष्टमङ्गलवरप्रदे ॥३॥
चूतपत्ररसने सुभाषिणि सुपक्वबिम्बरुचिराधरे
   दन्तकान्तिमृदुमन्दहासजित कुन्दशारदविधुप्रभे।
वेदशास्त्रसकलाक्षरालयचतुर्मुखप्रियकुटुम्बिनि
   त्वत्कृपा यदि न चेदिदं जगदशेषमेव जडतां व्रजेत् ॥४॥
पुस्तकामृतघटाक्षमालिकाश्चिन्मयीमपि सुमुद्रिकां
   कङ्कणाङ्गुलिसुभूषणाञ्चितकरारविन्दनिकरै धृते।
ब्रह्मसूत्रधरि वागधीश्वरि महेशसोदरि विदां वरे
   सत्वरं  प्रणमदन्धमूकगणदृष्टिभाषणविधायिके
॥५॥
रुक्मरत्नकलहंसचिह्नितदुकूलचेलमृदुकञ्चुके
   कुञ्जरेन्द्रकलशस्तने
सुतनु निर्जरीगणपरीवृते ।
गन्धपङ्कमृगनाभिकुङ्कुमसुलेपनोल्लसितमानसे
   शान्तिरस्त्वनपगामिनि मनाश्चिन्तनात्तसुखफलोदयम्॥६॥
रत्नहेमसुमालिकाङ्गदसुभूषितांसगळशोभने
    तप्तकाञ्चनसुशोभिरत्नमणिमेखलावृतकटीतटे।
किङ्किणीक्वणननूपुराभरणराजमानचरणाम्बुजे
    हृत् त्वदीय पुरुषार्थदायकपदब्जयुग्मनिलयं सदा॥७॥
             ॥शुभम्॥                
          

SRI SARASWATI STOTRAM-3

श्रीसरस्वतीस्तोत्रम् -३
रविरुद्रपितामहविष्णुनुतं
   हरिचन्दनकुङ्कुमपङ्कयुतम्।
मुनिवृन्दगजेन्द्रसमानयुतं
   तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥१॥
शशिशुद्धसुधाहिमधामयुतं
  शरदम्बरबिम्बसमानकरम्।
बहुरत्नमनोहरकान्तियुतं
  तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥२॥
कनकाब्जविभूषितभूतिभवं
   भवभावविभाषितभिन्नपदम्।
प्रभुचित्तसमाहितसाधुपदं
    तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥३॥
भवसागरमज्जनभीतिनुतं
    प्रतिपादितसन्ततिकारमिदम्।
विमलादिकशुद्धविशुद्धपदं
    तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥४॥
मतिहीनजनाश्रयपादमिदं
   सकलागमभाषितभिन्नपदम्।
परिपूरितविश्वमनेकभवं
  तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥५॥
परिपूर्णमनोरथधामनिधिं
   परमार्थविचारविवेकविधिम्।
सुरयोषितसेवितपादतलं
    तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥६॥
सुरमौलिमणिद्युतिशुभ्रकरं
   विषयादिमहाभयवर्णहरम्।
निजकान्तिविलोपितचन्द्रशिवं
  तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥७॥
गुणनैककुलं स्थितिभीतपदं
   गुणगौरवगर्वितसत्यपदम्।
कमलोदरकोमलपादतलं
   तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥८॥

SRI SARASWATI STOTRAM-2

                        श्रीसरस्वतीस्तोत्रम् -२
श्वेतपद्मासना देवी श्वेतपुष्पोपशोभिता।
श्वेताम्बरधरा नित्या श्वेतगन्धानुलेपना॥१॥
श्वेताक्षसूत्रहस्ता च श्वेतचन्दनचर्चिता।
श्वेतवीणाधरा शुभ्रा श्वेतालङ्कारभूषिता ॥२॥
वन्दिता सिद्धगन्धर्वैरर्चिता सुरदानवैः।
पूजिता मुनिभिस्सर्वैः ऋषिभिः स्तूयते सदा॥३॥
स्तोत्रेणानेन तां देवीं जगद्धात्रीं सरस्वतीम्।
ये स्मरन्ति त्रिसन्ध्यायां सर्वां विद्यां लभन्ति ते ॥४॥